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Wednesday, August 25, 2010
विट्ठल भाई पटेल
भारत के प्रख्यात विधानवेत्ता, वक्तृत्वकला के आचार्य और भारतीय स्वतंत्रता आदोलन के देश विदेश में प्रचारक, प्रवर्तक के रूप में श्री विट्ठलभाई पटेल का एक विशिष्ट स्थान है।
सन् 1871 ईसवी में आपका जन्म गुजरात के खेड़ा जिला के अंतर्गत "करमसद" गाँव में हुआ था। आप सरदार वल्लभ भाई पटेल के बड़े भाई थे। आपकी प्रारभिक शिक्षादीक्षा करमसद और नड़ियाद में हुई। इसके बाद आप कानून की शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड गए। वहाँ से वैरिस्टरी की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आप स्वदेश आए और वकालत प्रारंभ की। आपके आकर्षक एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा कानून के पांडित्य ने, अल्पकाल में ही अपको इस क्षेत्र में प्रसिद्ध कर दिया तथा आपने पर्याप्त धन भी अर्जित किया। इसी बीच धर्मपत्नी की मृत्यु ने आपके जीवन में परिवर्तन किया और आप शीघ्र ही सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने लगे।
सर्वप्रथम आपके बंबई कारपोरेशन, बंबई धारासभा तथा कांग्रेस में महत्वपूर्ण कार्य किया। 24 अगस्त, 1925 ईसवी को आप धारासभा के अध्यक्ष चुने गए। यहीं से आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय प्रारंभ होता है। आपकी निष्पक्ष, निर्भीक विचारधारा ने धरातल में आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप अंकित की। संसदीय विधि विधानों के आप प्रकांड पंडित थे। यही कारण है कि आप सदन में सभी दलों के आदर एवं श्रद्धा के पात्र थे और आपकी दी हुई विद्वत्तापूर्ण व्यवस्था सभी लोगों को मान्य हुआ करती थी। केंद्रीय धारासभा के अध्यक्ष के रूप में आप भारत में ही नहीं विदेशों में भी विख्यात हुए। विधि विषयक अपने सूक्ष्म ज्ञान से आप तत्कालीन सरकार को भी परेशानी में डाल दिया करते थे। अपने कार्य तथा देश को आपको सहज अभिमान था।
धारासभा में पंडित मोतीलाल नेहरू, श्री जिना की सिंहगर्जना से उत्पन्न क्षोभ एवं आवेश के गंभीर वातावरण को अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा असाधारण पांडित्य से आप देखते ही देखते परिवर्तित कर देते थे। सत्य के आप पुजारी थे और अन्याय के घोर विरोधी। इसलिये सरकार भी आपका लोहा मानती थी। श्री विट्ठल भाई ने धारासभा की अध्यक्षता द्वारा जैसे उच्च एवं उज्वल आदर्श उपस्थित किए, उन्हें ध्यान में रखकर यह बात नि:संकोच कही जा सकती है कि आपके सदृश सम्मान एवं गौरव सहित धारा सभा की अध्यक्षता आपके किसी पूर्ववर्ती ने नहीं की।
पंडित मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में जब स्वराज्य पार्टी ने केंद्रीय धारासभा के बहिर्गमन किया था, उस समय आपने अपनी असाधारण शक्ति का परिचय देशवासियों को दिया। आपने तत्काल ही सदन में घोषित किया कि धारासभा में बहुमत दल की अनुपस्थिति से उसका प्रतिनिधिमूलक स्वरूप समाप्त हो गया है। अत: सरकार को इस समय कोई भी विवादास्पद बिल सदन में उपस्थित नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही आपने स्पष्ट कर दिया कि यदि सरकार यह बात न स्वीकार करेगी तो मुझे अपने विशेषाधिकार से धारासभा की बैठक स्थगित कर देनी पड़ेगी। अपनी विष्पक्षता तथा निर्भीकता के कारण ही आप दूसरे वर्ष भी निर्विरोध धारासभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
जनसुरक्षा बिल के समय आपने सरकार का जिस प्रकार मार्गदर्शन किया वह स्मरणीय है। आपने सरकार को परामर्श दिया कि मेरठ षड्यंत्र केस के कारण इस समय देश में सर्वत्र भारी क्षोभ एवं असंतोष फैला हुआ है, ऐसी स्थिति में अब सुरक्षा बिल पर विचार के लिये दो ही मार्ग हैं। एक तो बिल को संप्रति स्थगित रखा जाय और दूसरे, सरकार मेरठ षड्यंत्र केस को उठा ले। जब सरकर ने आपकी यह सलाह न मानी तो बिल पेश होने पर उसे आपने अपने विशेषाधिकार से उपस्थित किए जाने के अयोग्य करार दे दिया। सन् 1930 में जन कांग्रेस ने धारासभाओं का बहिष्कार आरंभ किया तो आपने भी धारासभा की अध्यक्षता से पदत्याग कर दिया। अपने त्यागपत्र में आपने लिखा कि - स्वतंत्रता की इस लड़ाई में मेरा उचित स्थान असेंबली की कुर्सी पर नहीं अपितु रण क्षेत्र में है।
सन् 1930 ईसवी में दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ ही आप भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए। आपको छ: मास की जेल की सजा सुनाई गई। जेल में आपका स्वास्थ्य खराब हो गया फलत: अवधि पूरी होने के पूर्व ही आपकी रिहाई हो गई। श्री विट्ठलभाई पटेल के हृदय में मातृभूमि को स्वतंत्र देखने की उत्कट अभिलाषा थी। इसी कारण आप अत्यंत सादगी एवं न्याय भावना से रहा करते थे। आपको धारासभा से जो वेतन मिलता था उसका भारी अंश महात्मा गांधी को दे देते थे और कम खर्च में ही अपना काम चलाते थे। इस प्रकार आपका चालीस हजार रुपया महात्मा गांधी के पास एकत्र हो गया था जिससे बालिकाओं के लिय एक स्कूल की स्थापना की गई और जिसका उद्घाटन आपके निधन के बाद 31 मई, 1935 को महात्मा गांधी ने ही किया।
जेल से छूटने के बाद स्वास्थ्य ठीक न रहने पर भी आप अमरीका भ्रमण करने चले गए और वहाँ आपने भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में अत्यंत प्रभावशाली एवं ओजस्वी रूप में प्रचार किया। इस श्रम के कारण आपका स्वास्थ्य पुन: गिरने लगा। अंतत: आप चिकित्सार्थ जेनेवा आए। यहाँ उपचार के बावजूद आपके स्वास्थ्य में सुधार न हो सका और वहीं अस्पताल में सन् 1933 में आपका निधन हुआ।
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Sunday, August 22, 2010
ऊदा देवी
ऊदा देवी एक दलित (पासी जाति से संबद्ध) महिला थीं जिन्होने १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय सिपाहियों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। ये अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्या थीं। इस विद्रोह के समय हुई लखनऊ की घेराबंदी के समय लगभग २००० भारतीय सिपाहियों के शरणस्थल सिकन्दर बाग़ पर ब्रिटिश फौजों द्वारा चढ़ाई की गयी गयी थी और १६ नवंबर १८५७ को बाग़ में शरण लिये इन २००० भारतीय सिपाहियों का ब्रिटिश फौजों द्वारा संहार कर दिया गया था।
इस लड़ाई के दौरान ऊदा देवी ने पुरुषों के वस्त्र धारण कर स्वयं को एक पुरुष के रूप में तैयार किया था। लड़ाई के समय वो अपने साथ एक बंदूक और कुछ गोला बारूद लेकर एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गयी थीं। उन्होने हमलावर ब्रिटिश सैनिकों को सिकंदर बाग़ में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया था जब तक कि उनका गोला बारूद खत्म नहीं हो गया
ऊदा देवी, १६ नवंबर १८५७ को ३२ अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतारकर वीरगति को प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें जब वो पेड़ से उतर रही थीं तब गोली मार दी थी। उसके बाद जब ब्रिटिश लोगों ने जब बाग़ में प्रवेश किया, तो उन्होने ऊदा देवी का पूरा शरीर गोलियों से छलनी कर दिया। इस लड़ाई का स्मरण कराती ऊदा देवी की एक मूर्ति सिकन्दर बाग़ परिसर में कुछ ही वर्ष पूर्व स्थापित की गयी है।
वाजिद अली शाह दौरे वली अहदी में परीख़ाना की स्थापना के कारण लगातार विवाद का कारण बने रहे। फरवरी, १८४७ में नवाब बनने के बाद अपनी संगीत प्रियता और भोग-विलास आदि के कारण बार-बार ब्रिटिश रेजीडेंट द्वारा चेताये जाते रहे। उन्होंने बड़ी मात्रा में अपनी सेना में सैनिकों की भर्ती की जिसमें लखनऊ के सभी वर्गों के गरीब लोगों को नौकरी पाने का अच्छा अवसर मिला। ऊदादेवी के पति भी काफी साहसी व पराक्रमी थे, इनकी सेना में भर्ती हुए। वाजिद अली शाह ने इमारतों, बाग़ों, संगीत, नृत्य व अन्य कला माध्यमों की तरह अपनी सेना को भी बहुरंगी विविधता तथा आकर्षक वैभव दिया। उन्होंने अपनी पलटनों को तिरछा रिसाला, गुलाबी, दाऊदी, अब्बासी, जाफरी जैसे फूलों के नाम दिये और फूलों के रंग के अनुरूप ही उस पल्टन की वर्दी का रंग निर्धारित किया। परी से महल बनी उनकी मुंहलगी बेगम सिकन्दर महल को ख़ातून दस्ते का रिसालदार बनाया गया। स्पष्ट है वाजिद अली शाह ने अपनी कुछ बेगमों को सैनिक योग्यता भी दिलायी थी। उन्होंने बली अहदी के समय में अपने तथा परियों की रक्षा के उद्देश्य से तीस फुर्तीली स्त्रियों का एक सुरक्षा दस्ता भी बनाया था। जिसे अपेक्षानुरूप सैनिक प्रशिक्षण भी दिया गया। संभव है ऊदा देवी पहले इसी दस्ते की सदस्य रही हों क्योंकि बादशाह बनने के बाद नवाब ने इस दस्ते को भंग करके बाकायदा स्त्री पलटन खड़ी की थी। इस पलटन की वर्दी काली रखी गयी थी।
सार्जेण्ट फ़ॉर्ब्स मिशेल ने सिकंदर बाग के उद्यान में स्थित पीपल के एक बड़े पेड़ की ऊपरी शाखा पर बैठी एक ऐसी स्त्री का विशेष उल्लेख किया है, जिसने अंग्रेजी सेना के लगभग बत्तीस सिपाही और अफसर मारे थे। लंदन टाइम्स के संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लड़ाई के समाचारों का जो डिस्पैच लंदन भेजा उसमें पुरुष वेशभूषा में एक स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से फायरिंग करके तथा अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुँचाने का उल्लेख प्रमुखता से किया। संभवतः लंदन टाइम्स में छपी खबरों के आधार पर ही कार्ल मार्क्स ने भी अपनी टिप्पणी में इस घटना को समुचित स्थान दिया। इन्हें इसकी प्रेरणा अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पति मक्का पासी से प्राप्त हुई थी। १० जून १८५७ को लखनऊ के चिनहट कस्बे के निकट इस्माईलगंज में हेनरी लॉरेंस के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज के साथ मौलवी अहमद उल्लाह शाह की अगुवाई में संगठित, विद्रोही सेना की ऐतिहासिक लड़ाई में मक्का पासी वीरगति को प्राप्त हुए थे। इसके प्रतिशोध स्वरूप उन्होंने कानपुर से आयी काल्विन कैम्बेल सेना के ३२ सिपाहियों को मृत्युलोक पहुँचाया। इस लड़ाई में वे खुद भी वीरगति को प्राप्त हुईं। कहा जाता है इस स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर काल्विन कैम्बेल ने हैट उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी।
राइट बंधु
राइट बंधु ( Wright brothers), ऑरविल (अंग्रेजी: Orville, १९ अगस्त, १८७१– ३० जनवरी, १९४८) और विलबर (अंग्रेजी: Wilbur, १६ अप्रैल, १८६७ – ३० मई, १९१२), दो अमरीकन बंधु थे जिन्हें हवाई जहाज का आविष्कारक माना जाता है।इन्होंने १७ दिसंबर १९०३ को संसार की सबसे पहली सफल मानवीय हवाई उड़ान भरी जिसमें हवा से भारी विमान को नियंत्रित रूप से निर्धारित समय तक संचालित किया गया। इसके बाद के दो वर्षों में अनेक प्रयोगों के बाद इन्होंने विश्व का प्रथम उपयोगी दृढ़-पक्षी विमान तैयार किया। ये प्रायोगिक विमान बनाने और उड़ाने वाले पहले आविष्कारक तो नहीं थे, लेकिन इन्होंने हवाई जहाज को नियंत्रित करने की जो विधियाँ खोजीं, उनके बिना आज का वायुयान संभव नहीं था।
इस आविष्कार के लिए आवश्यक यांत्रिक कौशल इन्हें कई वर्षों तक प्रिंटिंग प्रेस, बाइसिकल,मोटर और अन्य कई मशीनों के साथ काम करते करते मिला। बाइसिकल के साथ काम करते करते इन्हें विश्वास हो गया कि वायुयान जैसे असंतुलित वाहन को भी अभ्यास के साथ संतुलित और नियंत्रित किया जा सकता है। १९०० से १९०३ तक इन्होंने ग्लाइडरों पर बहुत प्रयोग किये जिससे इनका पायलट कौशल विकसित हुआ। इनके बाइसिकल की दुकान के कर्मचारी चार्ली टेलर ने भी इनके साथ बहुत काम किया और इनके पहले यान का इंजन बनाया। जहाँ अन्य आविष्कारक इंजन की शक्ति बढ़ाने पर लगे रहे, वहीं राइट बंधुओं ने आरंभ से ही नियंत्रण का सूत्र खोजने पर अपना ध्यान लगाया। इन्होंने वायु-सुरंग में बहुत से प्रयोग किए और सावधानी से जानकारी एकत्रित की, जिसका प्रयोग कर इन्होंने पहले से कहीं अधिक प्रभावशाली पंख और प्रोपेलर खोजे। इनके पेटेंट (अमरीकन पेटेंट सं. ८२१, ३९३) में दावा किया गया है कि इन्होंने वायुगतिकीय नियंत्रण की नई प्रणाली विकसित की है जो विमान की सतहों में बदलाव करती है।
अनेक अन्य आविष्कारकों ने भी हवाई जहाज के आविष्कार का दावा किया है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि राइट बंधुओं की सबसे बड़ी उपलब्धि थी तीन-ध्रुवीय नियंत्रण का आविष्कार, जिसकी सहायता से ही पायलट विमान को संतुलित रख सकता है और दिशा-परिवर्तन कर सकता है। नियंत्रण का यह तरीका सभी विमानों के लिये मानक बन गया और आज भी सब तरह के दृढ़-पक्षी विमानों के लिए यही तरीका उपयुक्त होता है,
Saturday, August 14, 2010
bhagat singh
सरदार भगत सिंह (28 सितंबर 1907 - 23 मार्च 1931) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे । इन्होने केन्द्रीय असेम्बली की बैठक में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया । जिसके फलस्वरूप भगत सिंह को 23 मार्च 1931) को इनके साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फांसी पर लटका दिया गया । सारे देश ने उनकी शहादत को याद किया। उनके जीवन ने कई हिन्दी फ़िल्मों के चरित्रों को प्रेरित किया । कई सारी फ़िल्में तो उनके नाम से बनाई गई जैसे -शहीद, द लेज़ेंड ऑफ़ भगत सिंह, भगत सिंह इत्यादि । वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एशोसिएशन के स्थापक सदस्यों में से एक थे।
भगत सिंह का जन्म 2८ सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में चक नंबर 105 (अब पाकिस्तान में) नामक जगह पर हुआ था। हालांकि उनका पैतृक निवास आज भी भारतीय पंजाब के नवांशहर ज़िले के खट्करकलाँ गाँव में स्थित है। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन नाम के एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए थे। भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। इस संगठन का उद्देश्य ‘सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले’ नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरू के साथ मिलकर लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जेपी सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद ने भी उनकी सहायता की थी। क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने नई दिल्ली की सेंट्रल एसेंबली के सभागार में 8 अप्रैल, 1929 को 'अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिए' बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुंच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रांतिकारी किताबे पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधीजी के असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गांधीजी के तरीकों और हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे । गांधीजी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने कि वजह से उन्मे एक रोश ने जन्म लिय और् अंततः उन्होंने 'इंकलाब और देश् कि आजादि के लिए हिंसा' को अपनाना अनुचित नहीं समझा । उन्होंने कई जुलूसों में भाग लेना चालू किया तथा कई क्रांतिकारी दलों के सदस्य बन बैठे । बाद मे चल्कर वो अप्ने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियो के प्रतिनिधि बने। उन्के दल मे प्रमुख क्रन्तिकरियो मे आजाद, सुख्देव्, राज्गुरु इत्यदि थे।
१९२५ में साईमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए । इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज भी किया । इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई । अब इनसे रहा न गया । एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट सैंडर्स को मारने की सोची । सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु सैंडर्स के घर के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे । उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साईकल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो ख़राब हो गई हो । दत्त के इशारे पर दोनो सचेत हो गए । उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डीएवी स्कूल की चाहरीदीवारी के पास छिपे इनके घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे । सैंडर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधा उसके सर में मारी जिसके तुरत बाद वह होश खो बैठा । इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इंतज़ाम कर दिया । ये दोनो जैसे ही भाग रहे थे उसके एक सिपाही ने, जो एक हिंदुस्तानी ही था, इनका पीछा करना चालू कर दिया । चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया -'आगे बढ़े तो गोली मार दूंगा' । नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी । इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय के मरने का बदला ले लिया ।
भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के जोरदार पक्षधर नहीं थे । पर वे मार्क्स के सिद्धांतो से प्रभावित थे तथा समाजवाद के पक्षधर । इसकारण से उन्हें पूंजीपतियों क मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी । उस समय अंग्रेज सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति ही प्रकाश में आ पाए थे । अतः अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति रूख़ से ख़फ़ा होना लाज़िमी था । एसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था । सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिंदुस्तानी जगे हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है । ऐसा करने के लिए उन लोगों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची ।
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' पहुंचे । हंलांकि उनके दल के सब लोग एसा ही नहीं सोचते थे पर अंत में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया । निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनो ने एक निर्जन स्थान पर बम फेंक दिया । पूरा हॉल धुएँ से भर गया । वे चाहते तो भाग सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है । अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया । उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे । बम फटने के बाद उन्होंने इन्कलाब-जिंदाबाद का नारा लगाना चालू कर दिया । इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और इनको ग़िरफ़्तार कर लिया गया
जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे । इस दौरान वे कई क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे । उनका अध्ययन भी जारी रहा । उनके उस दौरान लिखे ख़त आज भी उनके विचारों का दर्पण हैं । इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना शत्रु बताया है । उन्होंने लिखा कि मजदूरों के उपर शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो वह उसका शत्रु है । उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ। जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हद्ताल कि।
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर इनको तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जब जेल के अधिकारियों ने उन्हें सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा - 'रुको एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है' । फिर एक मिनट के बाद किताब छत की ओर उछालकर उन्होंने कहा - 'चलो' [२]<।
फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी ।
फांसी के बाद कोई आन्दोलन ना भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहां घी के बदले किरासन तेल में ही इनको जलाया जाने लगा । गांव के लोगो ने आग देखी तो करीब आए । इससे भी डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ो को सतलुज नदी में फेंक कर भागने लगे । जब गांव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । ओर भागत सिन्घ हमेशा के लिये अमर हो गये इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ साथ गांधी जी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इसकारण जब गांधीजी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झंडे के साथ गांधीजी का स्वागत किया । किसी जग़ह पर गांधीजी पर हमला भी हुआ । इसके कारण गांधीजी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
जेल के दिनों में उनके लिखे खतों तथा लेखों से उनके विचारों का अंदाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी के गुरुमुखी तथा शाहमुखी तथा हिंदी और उर्दू के संदर्भ में), जाति और धर्म के कारण आई दूरी से दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गए अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिंदी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो कि उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जाएगी और ऐसा उनके जिंदा रहने से शायद ही हो पाए । इसी कारण उन्होंने सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से मना कर दिया । उन्होंने अंग्रेजी सरकार को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का युद्धबंदी समझा जाए तथा फ़ासी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए ।
फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था -
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें ।
उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा । इसके बाद में भी मार्क्सवादी पत्रों में उनपर लेख छपे, पर भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबंध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी । देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया ।
दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसु में के २२-२९ मार्च, १९३१ के अंक में तमिल में संपादकीय लिखा । इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को गांधीवाद के उपर विजय के रूप में देखा गया था ।
आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता उनको आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिंदगानी देश के लिए समर्पित कर दिया
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